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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

हाकिमों के हाथ ...

दुश्मनों  की  नब्ज़  में  धंसते  हुए
ख़ाक  में  मिल  जाएंगे  हंसते  हुए

ज़र्द  पड़ती   जा  रही  है   ज़िंदगी
तार  दिल  के  साज़  के  कसते  हुए

साफ़  कहिए  क्या  परेशानी  हुई
शह्रे-दिल  में  आपको  बसते  हुए

इश्क़  जिसने  कर  लिया  सय्याद  से
कुछ  न  सोचा  जाल  में  फंसते  हुए

आस्तीं  में  पल  रहे  हैं  मुल्क  की
नाग  काले   रात-दिन   डसते  हुए

थे  हमारे  आशियां  कल  तक  जहां
ताजिरों  के     नाम  के    रस्ते  हुए

मुफ़लिसो-मज़्लूम  के  ख़ूं  से  सने
हाकिमों  के    हाथ   गुलदस्ते  हुए  !

                                                                        (2017)

                                                                   - सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:





गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

...मयार खो बैठे !

रास्ते   कम  नहीं    मोहब्बत  के
पर  क़दम  तो  उठें  इनायत  के

जानलेवा  है        मौसमे  सरमां
हिज्र  में   दिन  हुए   हरारत  के

बात  क्या  इश्क़  की  करेंगे  वो
जो   तरफ़दार  हैं   अदावत  के

शाह  की  बद्ज़ुबानियां  तौबा !
बोल  तो  देखिए  हिकारत  के

आप  अपना   मयार   खो  बैठे
छोड़  कर  दायरे  शराफ़त  के

जान  लें  काश्तकार  नफ़रत  के
दिन  गए  गंद  की  सियासत  के

एक  रब  को   मना   नहीं  पाते
खुल  गए  दर  कई  इबादत  के  !

                                                             (2017)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इनायत : कृपा; मौसमे सरमां : शीत ऋतु; हिज्र : वियोग; हरारत : हल्का ज्वर; तरफ़दार : पक्षधर; अदावत : शत्रुता; बद्ज़ुबानियां : अभद्र भाषा के प्रयोग; हिकारत : तिरस्कार, घृणा, अपमान; मयार : उच्च स्थिति; दायरे : परिधियां; शराफ़त : भद्रता, शालीनता; काश्तकार : फ़सल उगाने वाले, कृषक; नफ़रत : घृणा; गंद : मलीनता, कीचड़; रब : ईश्वर; दर : द्वार, स्थान; इबादत : पूजा।