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मंगलवार, 15 सितंबर 2015

मेहमान हैं मुहाज़िर...

दहक़ां  की  ख़ुदकुशी  का  किसको  मलाल  है
लाशा     धधक     रहा   है    ज़िंदा   सवाल  है

ताजिर    सुंघा    रहे   हैं    जूता    अवाम   को
गाहक  गुज़र  न   जाए    इसका    ख़्याल  है

वो    अक्सरीयतों    पर    इठला    रहे  हैं   यूं
तुर्रे  में   शाह  के  ज्यों   'अन्क़ा  का   बाल  है

ये-वो  कि  आप    सब  पर    कुर्सी   सवार  है
सय्याद  के   बदन  पर   दुम्बे  की   ख़ाल  है

जन्नत    बना   रहा  है    शद्दाद    मुल्क  को
कल  तक  हराम  था  जो   अब  वो  हलाल  है

रोके   न  रुक  सकेगी    मेंहगाई    रिज़्क़  की
सरकार   की     रग़ों     में      ख़ूने-दलाल    है

मेहमान   हैं    मुहाज़िर     दहक़ान   ख़ुल्द  में 
घर-ख़र्च    से    ख़ुदा    का    जीना   मुहाल  है  !

                                                                                              (2015)

                                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दहक़ां: कृषक गण; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; मलाल: खेद, दुःख; लाशा: शव; ताजिर: व्यापारी; अवाम:जन-सामान्य; 
गाहक: ग्राहक; अक्सरीयतों: बहुमतों; तुर्रा: मुकुट में लगाया जाने वाला फुंदना;  'अन्क़ा: एक काल्पनिक पक्षी; सय्याद: आखेटक; 
दुम्बा: भेड़; जन्नत: स्वर्ग; शद्दाद: एक मिथकीय, ईश्वर-द्रोही राजा, जिसने कृत्रिम स्वर्ग का निर्माण कराया था; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; हलाल: धर्म-सम्मत; रिज़्क़: खाद्य-पदार्थ; रग़ों: रक्त-वाहिकाओं; ख़ूने-दलाल: कूट-मध्यस्थ का रक्त;  मुहाज़िर: शरणार्थी; ख़ुल्द: स्वर्ग; मुहाल: अत्यधिक कठिन । 

रविवार, 13 सितंबर 2015

सब्र रखिए, तो ...

तरही  ग़ज़ल 

(अज़ीम शायर जनाब अमीर मीनाई साहब की ग़ज़ल से ली गई तरह "आज की बात को क्यूं कल पे उठा रक्खा है" पर कही गई)

नौजवानी  का   कोई  ख़्वाब   बचा  रक्खा  है
एक  आतिशफ़िशां  सीने  में  जला  रक्खा  है

दिल  हसीनों  ने  कराए  पे  चढ़ा  रक्खा  है
उसपे  सरकार  ने  महसूल  लगा  रक्खा  है

शह्र  के  अम्न  को  शोहदों  ने  बचा  रक्खा  है
इसपे   हंगाम:   शरीफ़ों   ने   मचा    रक्खा  है

क़त्ल  कीजे  कि  हमें  क़ैद  कीजिए  दिल  में
आज  की  बात  को  क्यूं  कल  पे  उठा  रक्खा  है

सब्र  रखिए  तो  किसी  रोज़  सुनाएं  दिल  से
हमने   दीवान   सितारों  से   सजा   रक्खा  है

कौन  कमबख़्त  पिलाता  है  यहां   शैख़ों  को
ये  हमीं  हैं    कि  सबेरे  से    बिठा  रक्खा  है

दौरे-हिज्रां   ने    हमें   तोड़   दिया   है    इतना
वक़्त  से  क़ब्ल  फ़रिश्तों  को  बुला  रक्खा  है !

                                                                                            (2015)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आतिशफ़िशां: ज्वालामुखी; कराए: किराया, भाड़ा; महसूल: कर, शुल्क; अम्न: शांति; शोहदों: उपद्रवियों; हंगाम:: उत्पात; 
दीवान: काव्य-संग्रह; कमबख़्त: अभागा; शैख़: मद्य-विरोधी, धर्म-भीरु; दौरे-हिज्रा: वियोग-चक्र;  क़ब्ल: पूर्व; फ़रिश्तों: मृत्यु-दूतों।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

दिल की दवा....

जहां  हमने  उमीदों  की  शम्.अ   दी
सितारों  ने  वहीं  अपनी  अना  रख  दी

कभी  हम  बेक़रारी  में  न  सो  पाए
सर्हाने  पर  बुज़ुर्गों  ने  दुआ  रख  दी

ख़ुदा  ने   आशिक़ों  की  बद्दुआ  ले  ली
फ़रिश्तों में  अदा  रख  दी  जफा  रख  दी

सफ़र  में  याद  आएगी  हमारी  भी
सरो-सामान  में  हमने  वफ़ा  रख  दी

मुदावा  ये  किया  उसने  सुफ़ैदी  का
हमारे  सामने  दिल  की  दवा   रख  दी

तरक़्क़ी  के  सभी  मा'ने  बदल  डाले
मिटा  कर  शाह  ने  आबो-हवा  रख  दी 

बरहना  हैं  सरे-महफ़िल  सभी  रहबर
छुपा  कर  होशियारों  ने  हया  रख  दी !



                                                                                      (2015)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उमीदों: आशाओं; शम्.अ: दीपिका; सितारों: ग्रह-नक्षत्रों;  अना: घमंड;  बेक़रारी: व्याकुलता; सर्हाने: सिरहाने, सिर की ओर; बुज़ुर्गो: पूर्वजों; आशिक़ों: प्रेमियों; बद्दुआ: अ-शुभकामना; फ़रिश्तों: परियों; अदा: भाव-भंगिमा; जफा: निष्ठाहीनता; सरो-सामान: आवश्यक सामग्री; वफ़ा: निष्ठा;  मुदावा : उपचार; सुफ़ैदी: केशों की शुभ्रता, वृद्धावस्था; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास;  मा'ने: अर्थ, संदर्भ;  आबो-हवा: पर्यावरण, बरहना: निर्वस्त्र; सरे-महफ़िल: भरी सभा में, रहबर: मार्गदर्शक, नेता गण; होशियारों: चतुर-सुजानों;  हया: लज्जा । 





रविवार, 6 सितंबर 2015

दिन के रहीन ख़्वाब...

कुछ  लोग  मिरी  बज़्मे-सुख़न  से  निकल  गए
कुछ  घर  के  आस-पास,  सहन  से  निकल  गए

कुछ  दिल  में  आए  भी  तो  ज़ेह् न  से  निकल  गए
कुछ  बदनसीब  बू-ए-बदन  से  निकल  गए

क्या-क्या  हिदायतें  कि  क़लम  कांपने  लगे
क्या-क्या  महीन  लफ़्ज़  कहन  से  निकल  गए

क़ीमत  चुकाएं  भी  वो  नमक  की  तो  किस  तरह
ज़र  के  लिए  जो  शख़्स  वतन  से  निकल  गए

सय्याद  का  निज़ाम  न  पहरे  बिठा  सका
परवाज़   ले    परिंद   चमन  से  निकल  गए

मर  कर   भी  शैख़  जी  की  आदतें  वही  रहीं
ज़िक्रे-शराब  सुन  के  क़फ़न  से  निकल  गए

क्या  ख़ूब  शबे-वस्ल  ने  तोहफ़ा  दिया  हमें
दिन  के  रहीन  ख़्वाब  रसन  से  निकल  गए !

                                                                                          (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बज़्मे-सुख़न: रचना-गोष्ठी, रचना-कर्म; सहन: दालान;  ज़ेह् न: मस्तिष्क, चिंतन; बदनसीब: अभागे; बू-ए-बदन: देह-गंध; हिदायतें: दिशा-निर्देश, प्रतिबंध; क़लम: लेखनी; महीन: सूक्ष्म;  लफ़्ज़: शब्द; कहन: अभिव्यक्ति; ज़र: सोना, धन-संपत्ति; शख़्स: व्यक्ति; सय्याद: बहेलिया, क्रूर शासक; निज़ाम: प्रशासन; परवाज़: उड़ान; परिंद: पक्षी; चमन: उपवन; शैख़: धर्म-भीरु; ज़िक्रे-शराब: मद्य-चर्चा;  क़फ़न: शवावरण; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; तोहफ़ा: उपहार; रहीन: बंधक, गिरवी;  रसन: फंदा । 



शनिवार, 5 सितंबर 2015

अर्श से रोज़गार ...

गर  ख़ुदा  को   क़रार   आ  जाए
ख़ुल्द  में   भी   बहार   आ  जाए

ज़र्र:  ज़र्र:  हो   उन्स  से  रौशन
वो   सुब्ह    एक  बार   आ  जाए

चश्मे-जानां  में  ज़र्फ़  हो  इतना
देखते   ही     ख़ुमार     आ  जाए

आपकी   हर  अदा    मुबारक  हो
दुश्मनों  को भी  प्यार  आ  जाए

यूं   न  कीजे   निबाह    यारों  से
दोस्ती   में     दरार      आ  जाए

शाह की  तो नीयत  नहीं  दिखती
अर्श   से      रोज़गार     आ  जाए

हाथ  सर  पर  रखा  करें  मुहसिन
मुश्किलों    में    उतार   आ   जाए

पढ़     रहे   हैं    नमाज़    ग़ैरों  की
काश !  अपनी  पुकार   आ  जाए  !

                                                                      (2015)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; क़रार: आत्म-तुष्टि, संतोष का भाव; ख़ुल्द: स्वर्ग;  ज़र्र:  ज़र्र: : कण-कण;  उन्स : स्नेह, आत्मीयता;  रौशन: उज्ज्वल, प्रकाशित;  चश्मे-जानां: प्रिय के चक्षु; ज़र्फ़: गहराई; ख़ुमार: उन्माद;  अदा: भंगिमा;     मुबारक : शुभ;  दरार: संध;  नीयत: प्रवृत्ति, रुचि;  अर्श: आकाश; मुहसिन: कृपालु, अनुग्रही; नमाज़: यहां जनाज़े की नमाज़;  ग़ैरों: दूसरों;  पुकार: बुलावा, मृत्यु का निमंत्रण।

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

मस्अल: अना का ...

एक  घर  हमारा  है  एक  घर  ख़ुदा  का  है
ख़ूब  सोच  कर  कहिए  कौन  दर  वफ़ा  का  है

आपकी  निगाहों  में  हम  हसीं  न  हों  लेकिन
बज़्म  में  दिवानों  की  क़ायदा  दुआ  का  है

आपके  फ़रेबों  में  कुछ  नया  नहीं  मोहसिन
आपके  मुरीदों  को   आपका  नशा-सा  है

आजकल  सियासत  में  ज़ोर  रहज़नों  का  है
इंतज़ार  रैयत  को  इक  नई  शुआ  का  है

मग़फ़िरत  अभी   अपना   मुद्द'आ  नहीं  यारों
दिल  अभी  धड़कता  है  और  कुछ  इरादा  है

क्या  ग़लत  है  गर  हमको  शौक़  है  बग़ावत  का
आपके  लिए  भी  तो  मस्अल:  अना  का  है

क्या  बताएं  यारों  को  हम  नमाज़  के  मा'नी
पांच  वक़्त  झुकते  हैं  हुक्म  मुस्तफ़ा  का  है !

                                                                                                (2015)

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दर: द्वार; वफ़ा:निष्ठा; हसीं: सुंदर, आकर्षक; बज़्म: सभा; दिवानों: प्रेमोन्मादियों; दुआ: शुभकामना; फ़रेबों : छल-कपट, षड्यंत्रों; मोहसिन: अनुग्रही; मुरीदों: भक्त जन, प्रशंसक; ज़ोर: बल, प्रभाव;  रहज़नों: मार्ग में लूटने वाले; रैयत: नागरिक समाज; शुआ: किरण; मग़फ़िरत: मोक्ष; मुद्द'आ: विषय; गर: यदि; बग़ावत: विद्रोह; मस्अल: : समस्या, प्रश्न; अना: अहंकार; मा'नी: अर्थ, संदर्भ; मुस्तफ़ा: हज़रत मुहम्मद साहब स.अ.व. की उपाधि, पवित्रात्मा।


बुधवार, 2 सितंबर 2015

ख़्वाहिशों के जवाब ...

वो  जो  दिल  की  किताब पढ़ते  हैं
ख़ार    को    भी    गुलाब  पढ़ते  हैं

हम  उन्हें    माहताब    लिखते  हैं
वो    हमें    आफ़ताब     पढ़ते   हैं

नक़्शे-महबूब  हों  अयां  हम  पर
हौले-हौले      हिजाब      पढ़ते  हैं

ख़्वाब  में  और  क्या  करें  हम  भी
ख़्वाहिशों    के     जवाब    पढ़ते  हैं

वक़्त   के     हाथ    खेलने   वाले
आशिक़ी  को    अज़ाब   पढ़ते  हैं

शाहे-जम्हूर    वो    हुए    जब  से
चश्मे-नम  को   सराब   पढ़ते  हैं

आप  जब  मन  की  बात  कहते  हैं
कुर्सियों    का    हिसाब   पढ़ते  हैं 

आईन-ए-हिंद  की  क़सम  ले  कर
नफ़रतों   की    किताब    पढ़ते  हैं

शायरी    ने    ख़ुदा     बनाया    है
लोग     ख़ाना-ख़राब      पढ़ते    हैं  !

                                                                       (2015)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ार: कांटे; माहताब: चांदनी;आफ़ताब: सूर्य; नक़्शे-महबूब: प्रिय की मुखाकृति; अयां: प्रकट, स्पष्ट; हौले-हौले: धीमे-धीमे; 
हिजाब: मुखावरण; ख़्वाहिशों: इच्छाओं; आशिक़ी: प्रेम;  अज़ाब: पाप; शाहे-जम्हूर: लोकतंत्र के राजा; चश्मे-नम: आंख की नमी, आंसू; सराब: मृगजल; आईन-ए-हिंद: भारत का संविधान; नफ़रतों: घृणाओं;   ख़ाना-ख़राब: घर मिटाने वाला, यहां-वहां भटकने वाला।