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सोमवार, 17 मार्च 2014

रंगे-ईमान काम आता है

अजनबी  ही  रहे  ज़माने  में
शर्म  आती  है  मुंह  दिखाने  में

दिल  लिया  है  तो  ये:  हिचक  कैसी
नाम  अपना  हमें  बताने  में

आप  शायद  हमें  मना  लेते
पर  कमी  रह  गई  बहाने  में

वो:  ही  जानें  जो  इश्क़  करते  हैं
क्या  मज़ा  है  फ़रेब  खाने  में

आप  से  क्या  मुक़ाबिला  अपना
आप  माहिर  हैं  दिल  चुराने  में

क्या  बताएं  किसे  बताएं  अब
दर्द  होता  है  मुस्कुराने  में

कट  गई  उम्र  इम्तिहां  देते
मुब्तिला  हैं  वो:  आज़माने  में

गर  मुखौटा  कभी  हटे  उनका
आग  लग  जाएगी  ज़माने  में

रंगे-ईमान  काम  आता  है
दूरियां  रूह  की  मिटाने  में  !

                                                ( 2014 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अजनबी: अपरिचित; फ़रेब: छल; माहिर: प्रवीण; मुब्तिला: व्यस्त; रंगे-ईमान: निष्ठा की चमक। 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

ज़रा सी हड़बड़ी है..

फूल  मत  देना  हमें  सौग़ात  में 
खिल  न  पाएंगे  नए  हालात  में

कह  न  पाएंगे  किसी  से  राज़े-दिल
क्या  मिलेगा  वस्ल  की  इस  रात  में

तुम  सियासतदां  समझते  क्यूं  नहीं
बह  रहे   हैं  लोग  किन  जज़्बात  में

असलहों  की  है  हुकूमत  आजकल
बंट  रही  हैं  गोलियां  ख़ैरात  में 

क्यूं  ख़ुदा  से मांगता  है  रोटियां
क्या  कमी  है  आदमी  की  ज़ात  में

सिलसिला  जब  से  ख़ुदा  से  कर  लिया
तर-ब-तर  हैं  नूर  की  बरसात  में 

कौन  कहता  है  कि  हम  बेताब  हैं
बस  ज़रा  सी  हड़बड़ी  है  बात  में  !

                                                                   ( 2014 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल  

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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

जश्न हो जाए..!

कह  चुके,  अब  रुख़्सती  का  वक़्त  है
जश्न   हो   जाए,     ख़ुशी  का  वक़्त  है

अश्कबारी  भूल  कर  हंस  दीजिए
ये:  गुलों  में  ताज़गी  का  वक़्त  है

इंतेख़ाबे-आम      इस  जम्हूर  का
रहबरों  की  रहज़नी  का  वक़्त  है

शाहे-ग़ाफ़िल,  होश  में  आ  जा  ज़रा
ज़ालिमों  की  ख़ुदकुशी  का  वक़्त  है

ऐ  फ़रिश्तों !  बख़्श  दो  कुछ  देर  को
रिंद हैं,     बाद:कशी      का    वक़्त  है

मैकदे  की  लाज  रखियो,  ज़ाहिदों !
चल  दिए  हम,  बंदगी  का वक़्त  है

मौत  कहिए  जिस्म  की  या  यूं  कहें
रूह  की     आवारगी  का     वक़्त  है !

                                                        ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रुख़्सती: बिदाई; जश्न: उत्सव; अश्कबारी: अश्रु-प्रवाह; इंतेख़ाबे-आम: आम चुनाव; जम्हूर: लोकतंत्र; रहबरों  की  रहज़नी: नेताओं की बीच रास्ते में लूटमार; शाहे-ग़ाफ़िल: भ्रम में पड़े लोगों का राजा; ज़ालिमों: अत्याचारियों; ख़ुदकुशी: आत्महत्या;  फ़रिश्तों: मृत्यु-दूतों; बख़्श  दो: छोड़ दो; रिंद: मद्यप; बाद:कशी: मदिरा-पान; मैकदे: मदिरालय;  ज़ाहिदों: धर्मोपदेशकों; रूह  की  आवारगी: आत्मा की यायावरी।

गुरुवार, 6 मार्च 2014

फूल-सा नर्म दिल..

फूल-सा  नर्म  दिल  सनम  का  है
ये:  करिश्मा  किसी  करम  का  है

तोड़  कर  दिल  तमाम  कहते  हैं
अब  ज़माना  नई  नज़्म  का   है

मिरा  होना    अगर     ख़राबी  है
मुद्द'आ    आपके    रहम   का  है

रूह   को    दाग़दार    मत  कीजे
जिस्म  तो  यूं  भी  चार  दम  का  है

आक़बत   को    संवारिए    अपनी
ये:  सबक़  वक़्त  के  सितम  का  है

दरम्यां    दो  दिलों  के    दुनिया  है
फ़ासला   सिर्फ़  इक  क़दम  का  है

मैं  तिरे   अज़्म  की    हक़ीक़त  हूं
तू    नतीजा    मिरे  वहम  का  है  !

                                                     ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: करिश्मा: चमत्कार; करम: ईश्वरीय कृपा; ख़राबी: दोष;  रहम: दया; दाग़दार: कलंकित; दम: सांस; आक़बत: परलोक; सबक़: पाठ, शिक्षा; सितम: अत्याचार; दरम्यां: बीच में; फ़ासला: अंतराल, दूरी; अज़्म: अस्तित्व; हक़ीक़त: यथार्थ; नतीजा: परिणाम; वहम: भ्रम। 

क्या शिकायत करें ?

ज़िंदगी  यूं  रवां  नहीं  होती
और  ग़फ़लत  कहां  नहीं  होती

क्या  मुअम्मा  है,  तिरे  कूचे  में
कोई  हसरत  जवां  नहीं  होती

एक  बस्ती  कहीं  बता  दीजे
कोई  वहशत  जहां  नहीं  होती

क्या  शिकायत  करें  शहंशह  से
मुफ़लिसों  में  ज़ुबां  नहीं  होती

ढूंढते  हैं  वफ़ा  ज़माने  में
चाहते  हैं,  वहां  नहीं  होती

टूटतीं  गर  न  उम्मीदें  अपनी
रू:  सरे-आस्मां  नहीं  होती

ज़ीस्त  जब  रास्ता  नहीं  देती
मौत  भी  मेह्र्बां  नहीं  होती  !

                                             ( 2014 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रवां: प्रवहमान; ग़फ़लत: भ्रम, त्रुटि; मुअम्मा: पहेली; कूचे: गली; हसरत: इच्छा;  जवां:  पूर्ण; वहशत: उन्माद, क्रूरता; 
मुफ़लिसों: विपन्न जनों; ज़ुबां: वाणी; वफ़ा: आस्था; रू:: आत्मा; सरे-आस्मां: आकाश पर, देवलोक में; ज़ीस्त: जीवन; मेह्र्बां: कृपालु ।

बुधवार, 5 मार्च 2014

हिजाब मत रखिए ...!

वो:  बहाना  बना  के  मिलते  हैं
हम  जहां  को  बता  के  मिलते  हैं

साज़े-दिल  छेड़-छेड़  जाते  हैं
ख़्वाब  में  जब  वो:  आ  के  मिलते  हैं

बेवफ़ाई,  फ़रेब,  ख़ुदग़र्ज़ी
क्या  सिले  ये:  वफ़ा  के  मिलते  हैं

हरकतों  पर  नज़र  रखें  उनकी
जो  बहुत  मुस्कुरा  के  मिलते  हैं

आप  हमसे  हिजाब  मत  रखिए
यूं  भी  हम  सर  झुका  के  मिलते  हैं

अह् ले-दिल  जब  ख़ुदी  पे  आते  हैं
लाख  ख़तरे  उठा  के  मिलते  हैं

ऐ  फ़रिश्तों !  उन्हें  सलाम  कहो
नक़्श  जिनसे  ख़ुदा  के  मिलते  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साज़े-दिल: हृदय रूपी वाद्य, बेवफ़ाई: छल; फ़रेब: कपट;  ख़ुदग़र्ज़ी: स्वार्थ; सिले: प्रतिदान; वफ़ा: आस्था; 
हिजाब: पर्दा, आवरण; अह् ले-दिल: हृदय में आस्था रखने वाले; ख़ुदी: अपनी अस्मिता; नक़्श: मुख-चिह्न।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

दिल गुनहगार नहीं...

जो तलबगार  नहीं  है
वो:  मिरा  यार  नहीं  है

मुआमला-ए-नज़र  है
दिल  गुनहगार  नहीं  है

ख़्वाब  बेताब  हैं  बहुत
रात  बेज़ार   नहीं  है

गर्मिए-इश्क़  है  ज़रा
कोई  आज़ार  नहीं  है

आप  ज़रयाब  ही  सही
इश्क़  बाज़ार  नहीं  है

ख़्वाबे-आवारगी हूं मैं
मेरा  घरबार  नहीं  है

लाख पसमांदगी  सही 
राह  दुश्वार  नहीं  है

बेशक़ीमत  वफ़ाएं  हैं
तू  ख़रीदार  नहीं  है

मैं  रहे-इंक़ेलाब  हूं
वक़्त  तैयार  नहीं  है  !

                                  ( 2014 )

                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलबगार: इच्छुक; मुआमला-ए-नज़र: दृष्टि-दोष; गुनहगार: अपराधी; बेताब: उत्कंठित; बेज़ार: चिंतित; गर्मिए-इश्क़: प्रेम का ताप; आज़ार: रोग; ज़रयाब: समृद्ध; यायावरी का स्वप्न; पसमांदगी: थकान; दुश्वार: कठिन; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; वफ़ाएं: आस्थाएं; रहे-इंक़ेलाब: क्रांति का मार्ग।

सोमवार, 3 मार्च 2014

रूह की रौशनी

इश्क़  के  वलवले  बचा  रखिए
दीद  के  हौसले  सजा  रखिए

क्या  ख़बर  कौन  कब  बदल  जाए
वक़्त  से  दोस्ती  निभा  रखिए

अश्क  बेसाख़्त:  छलकते  हैं
दर्द  दिल  में  कहीं  दबा  रखिए

ख़्वाब  भी  राह  भूल  सकते  हैं
रास्तों  में  शम्'अ  जला  रखिए

दुश्मनों  की  कमी  नहीं  दिल  को
दोस्तों  को  गले  लगा  रखिए

तर्के-उल्फ़त  सही  मगर  दिल  में
आने-जाने  का  रास्ता  रखिए

तीरगी  में  फ़रेब  मुमकिन  है
रूह  की  रौशनी  बचा  रखिए !

                                           ( 2014 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:

 

रविवार, 2 मार्च 2014

बन सके न यूं आशना..!

रहा  दर-ब-दर  जिसे   ढूंढता,   वो:    क़रीब  आ  के    ठहर  गया
मैं  नज़र  की  ताब  न  ला  सका,  मेरे  दिल  में  नूर  उतर  गया

तुझे  मालो-ज़र  की  तलाश  थी,  मुझे  आक़बत  का  ख़याल  था
कभी  बन  सके  न  यूं  आशना,  कि  तेरा  ज़मीर  ही  मर  गया

मेरी  चश्म  में     तेरा  नूर  है,   मेरी  रूह  पर    है  करम  तेरा
मेरे  सर  पे  यूं  तेरा  हाथ  है  कि  मैं  डूब  कर  भी  उबर  गया

तू  यज़ीद  है   कभी  मान  ले,   यूं  भी    जानता  है    तुझे  जहां
कोई  और  होगा  वो:  हम  नहीं;  तेरे  अस्लहों  से  जो  डर  गया

ये:  वो:  राह  है  जहां  दूर  तक  किसी  हमसफ़र  का  पता  नहीं
के:    तेरी  तलाश  में     ज़िंदगी    मैं  हरेक  हद  से  गुज़र  गया

मेरी   हस्रतों   का     क़सूर  था    के:   फ़रेबे-बुत  में    उलझ  गया
तेरा  दर  गया,  मेरा  घर  गया,  मेरे  नाल:-ए-दिल  का  असर  गया

मुझे  इल्म  था  तू  है  आईना,  मैं  संभल-संभल  के  चला  बहुत
तू  मिला   तो  शक्ले-ख़्वाब  में,   कि  छुए  बग़ैर  बिखर  गया  !

                                                                                               ( 2014 )

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दर-ब-दर: द्वारे-द्वारे; ताब: बराबरी;  मालो-ज़र: स्वर्ण-संपत्ति;  आक़बत: परमगति; आशना: निकट मित्र;  ज़मीर: विवेक;  
चश्म: नयन; करम: कृपा;    यज़ीद: हज़्रत इमाम हुसैन और उनके साथियों का शत्रु,  हत्यारा; अस्लहों: शस्त्रास्त्रों; हस्रतों:इच्छाओं; 
फ़रेबे-बुत: मूर्त्ति का छल, मानवीय सौन्दर्य का छल;  नाल:-ए-दिल: हृदय का आर्त्तनाद; इल्म: अभिज्ञान; शक्ले-ख़्वाब: स्वप्न-रूप।