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मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

दिल से उतर जाते हैं !

शाम-ओ-सुब्ह    तेरे   ग़म   में    गुज़र   जाते   हैं
ख़्वाब  बसते  नहीं    और  ज़ख़्म    ठहर  जाते  हैं 

बात  निकले  तो  ज़रा  बज़्म-ए-सुख़न  में  उसकी
बात   की   बात   में    नग़मात  बिखर   जाते   हैं

ग़ोर-ओ-अर्श  मु'अय्यन  हैं  जिस्म-ओ-रू:  के  लिए
देखना    है,     मेरे    अरमान    किधर   जाते    हैं

ज़िक्र-ए-माशूक़   से   अश'आर  में   जां   आती   है
ज़िक्र-ए-अल्लाह   से    आमाल    संवर   जाते    हैं

याद    रक्खेंगे      ये:      मेहमान-नवाज़ी       तेरी
तश्न:-लब    आए    थे    हम,   दीद:-ए-तर  जाते  हैं

वो:  जो  जज़्बात  की  करते  हैं  तिजारत  अक्सर
रहते  हैं  अपनी  जगह,  दिल  से  उतर  जाते  हैं  !

                                                                   ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बज़्म-ए-सुख़न: साहित्यिक गोष्ठी; नग़मात: गीत ( बहु.); ग़ोर-ओ-अर्श: क़ब्र और परलोक;

          मु'अय्यन: सुनिश्चित; जिस्म-ओ-रू:- शरीर और आत्मा; ज़िक्र-ए-माशूक़: प्रिय का उल्लेख;
          ज़िक्र-ए-अल्लाह: ईश्वर का उल्लेख; आमाल: आचरण; तश्न:-लब: प्यासे होंठ; दीद:-ए-तर: भीगे
          नयन; जज़्बात: भावनाएं; तिजारत: व्यापार।

* मक़्ते का मिसरा-ए-सानी मेरी अम्मी मरहूम अल्लाह बख्शे, मोहतरिमा रतन बाई खडग साहिबा की नवाज़िश है।

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