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शनिवार, 5 जनवरी 2013

सोज़-ए-उम्मीद



इक   अदा   पे    तुम्हारी    फ़िदा   हो   गए
अजनबी   थे    मगर      आशना   हो   गए

लब   लरज़ने   लगे     सोज़-ए-उम्मीद    में
उफ़  ये:  नज़दीकियां  क्या से क्या  हो  गए

अल्लः  अल्लः    ये:   मासूमियत   आपकी
ज़िब्ह   करके   हमें     बावफ़ा     हो    गए 

सुर्ख़ रू:  हो  के  समझे   मोहब्बत   है  क्या
हम   मुजस्सम   सुबूत- ए -ख़ुदा    हो   गए

पीर   से    पर्दा    करते    रहे     रात    भर
सुब्ह-ए-नौ    रूह   तक   बरहना   हो   गए

तुमको  ढूँढा  किए   सफ़-ब-सफ़  ख़ुल्द   में
हमको    दे   के   अज़ां    लापता   हो   गए।

                                                   (2003)

                                           -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: अदा: भाव;    फ़िदा: न्यौछावर; अजनबी: अपरिचित;  आशना: प्रिय मित्र; लब: अधर; लरज़ने: कांपने; सोज़-ए-उम्मीद: आशा का माधुर्य; नज़दीकियां: निकटताएं; मासूमियत: अबोधता; ज़िब्ह: गला काटना; बावफ़ा: निष्ठावान; सुर्ख़ रू:: सफल; मुजस्सम: पूर्णरूपेण; सुबूत- ए -ख़ुदा: ईश्वर का प्रमाण; पीर: मार्गदर्शक, ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में माध्यम; सुब्ह-ए-नौ: नई भोर में; बरहना: दिगंबर; सफ़-ब-सफ़: एक-एक पंक्ति में; ख़ुल्द: स्वर्ग;   अज़ां: नमाज़ हेतु बुलावा । 


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