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रविवार, 23 दिसंबर 2012

जंग-ए-ईमां


बात  पर   बन   आई   है    देखें   निभाता   कौन   है
कूच:-ए-क़ातिल  में   आख़िर   मुस्कुराता  कौन   है

क्या  समां  है,   चश्मो-लब   दोनों तरफ़  ख़ामोश हैं
देखिये,   अब   बात   को    आगे   बढ़ाता   कौन   है

अपने-अपने  दायरों में    हैं  मुक़य्यद  ज़ेह्न-ओ-दिल
हुस्न-ए-जां   के  सामने    ईमाँ   से  जाता  कौन  है

कोई  शजरे से न  आया   कट गई फिर शब्बरात
रौज़ा-ए-ग़ालिब  पे  अब  शम'.अ  जलाता  कौन है

ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र   आ रू-ब-रू  हो के भी देख
जंग-ए-ईमाँ  है  यहाँ    पलकें   झुकाता   कौन  है।

                                                             ( 2012 )

                                                - सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ:  कूच:-ए-क़ातिल: हत्यारे की गली; समां: वातावरण; चश्मो-लब: नयन और अधर; दायरों: सीमाओं, घेरों; मुक़य्यद: बंदी; ज़ेह्न-ओ-दिल: मस्तिष्क और मन; हुस्न-ए-जां: प्राणप्रिय का सौंदर्य; ईमाँ: निष्ठा, आस्था; शजरे: वंश; शब्-ए-क़द्र: पूर्वजों के सम्मान की रात्रि, 'शब-ब-रात'; रौज़ा-ए-ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की समाधि; हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र: चिर-प्रतीक्षित यथार्थ, ईश्वर; रू-ब-रू: प्रत्यक्ष; जंग-ए-ईमाँ: आस्थाओं का संघर्ष । 

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